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■ वास्तुशास्त्र क्या है-

वास्तु एक संस्कृत भाषा का शब्द है। इसे संस्कृत शब्द "वस" से लिया गया है, जिसका अर्थ है "रहना" या "निवास करना", वास्तु शास्त्र जो कि एक वेदयुगीन विज्ञान है, घर या भवन के निर्माण से संबंधित है, जिसमें दिशाओं, तत्वों और ऊर्जा के प्रवाह का ध्यान रखा जाता है। यह किसी धर्म या सम्प्रदाय से नहीं, बल्कि सार्वभौमिक सत्य से जुड़ा हुआ है जिसे हजारों वर्ष के अनुसंधान के बाद विद्वान ऋषि-मुनियों द्वारा लोकोपयोगी बनाया गया। वास्तुशास्त्र पृथ्वी से निकलने वाली ऊर्जा को, वास्तु पुरुष कहकर सम्बोधित करता है जिसमें पुरुष का अर्थ है पृथ्वी में प्रवेश करने वाली अतिसूक्ष्म विलक्षण ऊर्जा का भौतिक स्वरूप। इसलिए पृथ्वी की ऊर्जा को साकार माना जाता है। वास्तुशास्त्र हमारे जीवन के हर क्षेत्र में सुधार लाने में सहायक है। इसकी सहायता से निवास स्थान, व्यवसायिक स्थल या ऑफिस इत्यादि का वास्तुदोष निवारण करने पर चमत्कारिक, सुखद परिणाम देखने को मिलते हैं। इसी कारण पूर्व के इस सदियों पुराने विज्ञान की प्रसिद्धि आज चारों ओर फैल रही है बल्कि पश्चिमी देशों में भी यह अत्यन्त लोकप्रिय होता जा रहा है। वास्तु सिर्फ भवनों की बनावट के बारे में नहीं अपितु यह भवन में रहने वालों को सुखद एवं समृद्ध जीवन प्रदान करने के लिए कुछ जगह छोडने एवं बाकी जगह पर सही दिशा में निर्माण करने के साथ-साथ सजावट की भी कला है। जब निवास या कार्य-स्थल व्यक्ति के अनुकूल होंगे, तभी वह मानसिक रूप से शांत होगा। जिससे उसकी कार्यकुशलता में वृद्धि होगी और उन्नति भी होगी। कहने का तात्पर्य यह कि वास्तु एक ऐसा विज्ञान है, जिसके माध्यम से प्राकृतिक ऊर्जा का अधिकतम लाभ लेकर सुखी जीवन जिया जा सकता है। वास्तु यानी भूमि व भवन से जुड़ा एक ऐसा विज्ञान, जिसमें वातावरण मे व्याप्त ऊर्जा के समुचित उपयोग द्वारा सुखद व स्वस्थ जीवन के लिए दिशा-निर्देश मिलते हैं। ऐसा नहीं है कि वास्तु इस देश के लिए कोई नई विधा है, बल्कि यह सदियों पहले हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा गहन अध्ययन के बाद प्रचलन में लाई गई। इस विधा पर चीन के विद्वान भी बहुत पहले से कार्य कर रहे थे उन्होंने भारत की इस प्राचीन धरोहर का भी गहन अध्ययन किया व अपने देश की भौगोलिक परिस्तिथियों को ध्यान में रखते हुए इस शास्त्र को अपने देश के लिए रचा, जिसे फेंगशुई कहते हैं। सवाल पैदा होता हैं कि हमारी इतनी प्राचीन, समृद्ध तथा वैज्ञानिक रूप से सशक्त विधा समय के साथ लुप्त क्यों हई? इस प्रश्न का उत्तर अत्यन्त सरल है। पहला कारण यह कि प्राचीनकाल में मौखिक शिक्षा का प्रचलन था लिखित परम्परा बहुत मे बाद आई। दूसरा यह कि ऋषि-मुनियों ने इस गूढ विज्ञान को आम जन तक पहँचाने के लिए इसके वैज्ञानिक पक्ष को नेपथ्य मे रख इसे धार्मिकता से जोड़ दिया  ताकि धार्मिक आधार पर इन नियमों का पालन हो। नतीजा यह हुआ कि समय के साथ नई पीढ़ी इसे अंधविश्वास समझकर नकारती गई। सृष्टि की उत्पत्ति से मनुष्य सरल और सुखद जीवन जीने का प्रयास कर रहा है। इसके लिए विश्व के सभी महाद्वीप के लोगों ने अपनी-अपनी भौगोलिक स्थिति के अनुसार अपने आवास बनाए। ज्ञान और विज्ञान की तरक्की के साथ-साथ धीरे- धीरे गाँवों का स्थान शहरों ने और छोटे-छोटे घरों का स्थान बहुमंजिला इमारतों ने ले लिया।वास्तुशास्त्र किसी भी भवन या भूमि के आकार,अनुपात, दिशा तथा आस-पास के वातावरण में पर्यावरण के साथ सामंजस्य बनाए रखने की प्राचीन कला है, जिसका प्रभाव मकान, दुकान, कारखाने, स्कूल, अस्पताल, धर्मशाला, सार्वजनिक कार्यालय, धार्मिक स्थान, नदी-नाले, श्मशान भूमि, अनैतिक स्थान (जैसे जुआघर, शराबखाने, वेश्यालय इत्यादि) और यहाँ तक कि सड़क, चौराहा, तिराहा, गली, मोहल्ला, शहर अर्थात्  पृथ्वी पर हर जगह समान रूप से पड़ता है। जब भूखण्ड का खाली टुकड़ा होता है उस पर ऊर्जा बिना किसी रुकावट के बहती रहती है। जब हम भूखण्ड पर कोई निर्माण करते है, तो दीवारें बनाते हैं, दरवाजे- खिड़कियाँ लगाते हैं, तब भूखण्ड पर निर्बाध रूप से बह रही ऊर्जा में रुकावट आने पर एक असन्तुलन पैदा हो जाता है। इस असन्तुलन को पुनः संतुलित करने के विज्ञान आधारित जो नियम उसे ही वास्तुशास्त्र कहते हैं। सुखद एवं सफल जीवन को सुनिश्चित करने के लिए भूखण्ड का आकार, मुख्य द्वार का स्थान और पृथ्वी पर बहने वाली ऊर्जा के निर्बाध बहाव में सामंजस्य बहुत आवश्यक है। अपने घर पर इस अदभुत ज्ञान को अपनाकर आप जीवन को सरल एवं सुखद बना सकते हैं। ध्यान रखें अच्छा प्लॉट और अच्छा भवन चौकोर या आयताकार ही होता है। आजकल जब भी कोई व्यक्ति नया घर बनाता है तो उसकी बाहरी व आंतरिक साज-सज्जा पर ध्यान देने के साथ-साथ कोशिश करता है कि उसे अधिक से अधिक सुख-सुविधा का लाभ भी मिले, परन्तु इस बात पर कभी भी गम्भीरता से विचार नहीं करता कि क्या यह भवन उसके जीवन मे सुख, समृद्धि, प्रसिद्धि, स्वास्थ्य और शांति का मार्ग प्रशस्त करेगा? हम महल मे ही क्यों न रह रहे हों, जहाँ सभी प्रकार की भौतिक सुख-सुविधाएँ तो उपलब्ध हों, परन्तु मन की शांति न हो, स्वास्थ्य अच्छा न हो, परिवार विभिन्न प्रकार की अनावश्यक परेशानियों से से त्रस्त रहता हो, पारिवारिक जीवन दुःखी एवं तनावग्रस्त हो, परिवार में एक के बाद एक दुर्घटनाएँ हो रही हों तो बताइए ऐसे महल रहने से क्या लाभ? आजकल के भवनों की बनावट पुराने जमाने के भवनों की बनावट से बिलकुल भिन्न होती जा रही है। पुराने समय के भवनों की बनावट में बहुत कम वास्तुदोष होते थे। आजकल अधिकांश भवनों की बनावट में वास्तुदोष होते हैं। पिछली शताब्दी के मध्य तक न तो घरों के अन्दर टॉयलेट और सेष्टिक टैंक होते थे न ही भू्मिगत पानी के स्रोत,[पानी की टंकी, कुंआ, बोरिंग इत्यादि] लोग शौच आदि के लिए जंगलों में जाया करते थे और पानी भरने के लिए किसी कुएँ पर। भवनों के आकार आयताकार हुआ करते थे और फर्श समतल होता था। इस प्रकार की बनावट वाले घरों में रहने वालों का जीवन निश्चित ही सुखद एवं सरल था। आबादी बढने के साथ-साथ गाँव कस्बों में बदल गए और कस्बे महानगर में। आज जंगलों का दूर-दूर तक पता नहीं है। अतः शौच या दिशा मैदान जाना असुविधाजनक होने लगा। ऐसी रिथति में घर की बनावट में एक बदलाव आया, घर के पिछवाडे मे ही अलग से टॉयलेट ब्लॉक बनाया जाने लगा। तब तक सेप्टिक टैंक चलन में नहीं आए थे, इसलिए मैला साफ करने के लिए जमादार आते थे। उस वक्त तक भी स्थिति ठीक थी, परन्तु वर्तमान में बढ़ती आबादी व घटती जमीन के कारण प्लॉटो के साइज छोटे हो गए इसके बावजूद हर आदमी घर बनाते समय व्यक्तिगत निजता का ध्यान रखते हुए सभी प्रकार की सुख-सुविधा की चाह रखता है। ऐसी स्थिति में चाहे छब्बीस-  पचास साइज का ही प्लॉट क्यों न हो, उसमें एक भूमिगत पानी का स्रोत तथा एक से अधिक टॉयलेट के साथ एक सेप्टिक टैंक अवश्य होता है। घर की जिस दिशा मे टॉयलेट होता है वहाँ नकारात्मक ऊर्जा ज्यादा होने से वह स्थान दोषपूर्ण हो जाता है। उदाहरण के लिए यदि टॉयलेट सम्पत्ति वाले कोने में बन जाए तो घर की आर्थिक स्थिति खराब हो जाती है और यदि कीर्ति वाले भाग पर बन जाए तो अपयश का सामना करना पड़ता है। इसी प्रकार भूमिगत पानी का स्रोत और सेप्टिक टैंक सही जगह पर बन जाएं तो लाभकारी होते हैं और यदि  गलत जगह बन जाएं तो वहाँ रहने वालों के जीवन में उथल-पुथल मचा देते हैं। ऐसे कई अन्य वास्तुदोष वर्तमान में बन रहे भवनों में देखने को मिलते हैं। हमें हमारे आस-पास ही वास्तु के अनेक उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। जेसे किसी परिचित के घर जाने पर हमारा मन प्रसन्न हो जाता है और वहाँ बार-बार जाने का मन करता है, इसके विपरीत किसी दूसरे परिचित के घर पर जाने पर घुटन महसूस होती है, भारीपन लगता है वहाँ से जल्दी आने का मन करता है और फिर कभी उनके यहां जाने की इच्छा भी नहीं होती है। इसी प्रकार हम अपने आस-पास देखते हैं कि पडोस के ही किसी मकान में आकर रहने वाले किरायेदार, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करते हुए, अपना स्वयं का एक शानदार मकान बनाते हैं और किराये का मकान छोड़कर अपने नए मकान में रहने चले जाते हैं। कई मकान ऐसे भी होते हैं, जिसमें जो भी परिवार रहने आता है, वहां आते ही उनके परिवार में दुखद घटनाओं का सिलसिला चल पड़ता है। परिवार के सदस्य आर्थिक, शारीरिक व मानसिक रूप से परेशान रहते हुए एक दिन मकान छोडकर चले जाते हैं। कभी-कभी भव्य भवन का निर्माण कर उसमें निवास करने वाले आर्थिक रूप से सम्पन्न होते हुए भी वंशहीन रह जाते हैं। कालान्तर में उस भवन का उपभोगकर्ता न होने से वह भवन खण्डहर मे बदल जाता है। कई फैक्टी मालिकों को अपनी फैक्ट्री शुरू करते ही श्रमिक समस्याओं, दुर्घटनाओं सरकारी छापों आदि से परेशान होकर फैक्ट्री बंद करनी पड़ जाती है। इसके बिल्कुल विपरीत छोटे से स्थान पर कार्य शरू करके कुछ लोग शीघ्र सफलता प्राप्त कर अपना कारोबार काफी बढ़ा लेते हैं, बहुत धनवान हो जाते हैं और सुख-समद्धि भरा जीवन व्यतीत करते हैं। यदि किसी झोपड़े को वास्तु अनुरूप बनाया जाए तो वहाँ रहनेवाले व्यक्ति को अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पू्ति के लिए परेशानियाँ नहीं उठानी पड़ती हैं। उसका परिवार तरक्की करता है और जीवन धीरे-धीरे सुखद होता चला जाता है। इसके विपरीत यदि किसी बंगले का वास्तु बिगड़ जाए तो वहाँ रहने वाले कितने ही धनवान क्यों न हों पर उन्हें अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्तिं के लिए भी बहुत कष्ट उठाने पड़ते हैं। धीरे-धीरे उनके ऐश्वर्य और मान-सम्मान में कमी आने लगती है, साथ ही शारीरिक, मानसिक व आर्थिक कष्ट बढ़ने से उनका जीवन दुःखद होता चला जाता है। कुछ वास्तदोष ऐसे होते हैं, जो शीघ्र ही अपना कुप्रभाव दिखाना शुरू कर देते है, अतः इन वास्तुदोषों को सुधारने में कभी भी विलम्ब नहीं करना चाहिए। आम लोगो में भ्रांति है कि वास्तु अनुरूप भवन निर्माण करना बहुत महँगा होता है, जगह बर्बाद होती है, परन्तु यह बात पूर्णतः गलत है। सच तो यह है कि वास्तु अनुरूप भवन बनाना सस्ता पडता है और जगह की बर्बादी बिलकुल भी नहीं होती है। देखा जाए तो एक-एक इंच जगह का उपयोग सही तरीके से होता है। छोटे प्लॉट पर भी वास्तु अनुरूप बना मकान बड़ा- बड़ा व खुला हुआ नजर आता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि वास्तु में इस बात का कोई महत्त्व नहीं है कि, जिस भवन में आप निवास कर रहे हैं, वह भवन आपका अपना है या किराये का, स्थायी निवास स्थान है या अस्थायी निवास [जेसे किराये का घर,फ्लैट, दुकान,अस्पताल,होटल इत्यादि] वास्तु हर जगह पूर्ण रूप से प्रासंगिक होता है। उदाहरण के लिए आप किसी नाव में यात्रा कर रहे हैं और उस नाव में सुराख हो जाए तो आप निश्चित ही डूब जाएँगे। अब वह नाव आपकी अपनी हो या किराये की या आप सिर्फ नदी पार करने के लिए उसमें बैठे हों, इससे कोई फर्क नहीं पडता। अतः जो जिस मकान में रहता है या कारोबार करता है उस स्थान के वास्तु का शुभ, अशुभ प्रभाव उस पर पड़ता है। इसी के साथ वास्तु के ज्ञाता को भी हमेशा वास्तु में दो चीजों के प्रति विशेष संवेदनशील होना पड़ता है। एक जो लोग वहाँ रहते हैं उनकी जरूरतें क्या है? दूसरी, उस परिसर की जरूरत क्या है? क्योंकि भवन आखिर उस व्यक्ति के लिए ही है,जो वहाँ रहता है। वास्तु का योग्य ज्ञाता वही है जो उपलब्ध साधनों के भीतर ही भवन मालिक कीआवश्यकताओं की पूर्ति और वास्तु सिद्धान्तों का उचित समन्वय करता है। तात्पर्य यह है कि उपर्युक्त वर्णित समस्त संरचनाओं का निर्मांण वास्तुशास्रीय सिद्धांतो को ध्यान में रखकर करना चाहिए। इस प्रकार की संचनाओं में निवास करने वाले लोग भोग-विलास से युक्त होकर हर प्रकार की समृद्धि को प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत यदि संरचनाओं का निर्माण वास्तुशास्त्रीय सिद्धांतों के विपरीत होता है तो लोग कई प्रकार की व्याधियों से ग्रस्त रहते हैं।